मेरे साथी ....जिन्होंने मेरी रचनाओं को प्रोत्साहित किया ...धन्यवाद
शुभ-भ्रमण
नमस्कार! आपका स्वागत है यहाँ इस ब्लॉग पर..... आपके आने से मेरा ब्लॉग धन्य हो गया| आप ने रचनाएँ पढ़ी तो रचनाएँ भी धन्य हो गयी| आप इन रचनाओं पर जो भी मत देंगे वो आपका अपना है, मै स्वागत करती हूँ आपके विचारों का बिना किसी छेड़-खानी के!
शुभ-भ्रमण
शुभ-भ्रमण
18 मार्च 2013
12 मार्च 2013
"फागुन का हरकारा”
गीतिका 'वेदिका
"फागुन का हरकारा”
भंग छने रंग घने
फागुन का हरकारा
टेसू सा लौह रंग
पीली सरसों के संग
सब रंग काम के है
कोई नही नाकारा
बौर भरीं साखें है
नशे भरी आँखें है
होली की ठिठोली में
चित्त हुआ मतवारा
जित देखो धूम मची
टोलियों को घूम मची
कोई न बेरंग आज
रंग रंगा जग सारा
मुठी भर गुलाल लो
दुश्मनी पे डाल दो
हुयी बैर प्रीत, बुरा;
मानो नही यह नारा
मन महके तन महके
वन औ उपवन महके
महके धरा औ गगन
औ गगन का हर तारा
जीजा है साली है
देवर है भाभी है
सात रंग रंगों को
रंगों ने रंग डारा
चार अच्छे कच्चे रंग
प्रीत के दो सच्चे रंग
निरख निरख रंगों को
तन हारा मन हारा
8/03/2013 1:45pm
10 मार्च 2013
कविताये नज़में - गीतिका 'वेदिका'
कविताये नज़में - गीतिका 'वेदिका' | शब्दांकन #Shabdankan
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29 जन॰ 2013
मन मन ही मन में घुलता है
चुप चाप समाधि सी बैठूं
जीवन क्या यही शिथिलता है
जीवन क्या यही शिथिलता है
मन सदा अशांत ही रहता है
मन मन ही मन में घुलता है
मन मन ही मन में घुलता है
खोकर अपना नन्हा सा शिशु
न प्यार तुम्हारा पाया है
कैसे तुम पत्थर दिल साथी
मन में भरी विकलता है
न प्यार तुम्हारा पाया है
कैसे तुम पत्थर दिल साथी
मन में भरी विकलता है
खाना पीना खा लूँ सो लूँ
अपना रोना किसको रो लूँ
न कोई तत्परता अब
न कोई चंचलता है
न कोई चंचलता है
चहुँ और न कोई आश्वाशन
मन समझे न कोई भाषा
कैसे मन को समझाऊं मै
मेरे अंतर व्याकुलता है
मन समझे न कोई भाषा
कैसे मन को समझाऊं मै
मेरे अंतर व्याकुलता है
17 सित॰ 2012
"मेरे घर आये है साजन"
मेरे घर
आये है साजन
आँगन निखर
गया
बरसी थी
नैनो की बदली
धो गयी
सब काजल और
कजली
रोग शोक
दुःख पीड़ा
जाने किधर
गया
हम मिलकर
तुमसे हरसाए
सबको अपने
सजन दिखाए
खूब खूब
खुद पे इतराए
विरह वेदना
का रोना
सब बिसर
गया
1 जून 2012
गजल सा ये चेहरा...!
किसी फूल की पंखुरी से मुलायम
बहुत खूबसूरत गजल सा ये चेहरा
बहुत खूबसूरत गजल सा ये चेहरा
ये आँखें है या मुस्कराती दो कलियाँ
किसी झील में इक कमल सा ये चेहरा
30 दिस॰ 2011
तेरे उर का दीप सजन
नही तिमिरमय तू
तेरे उर का मै दीप सजन
धरो न यूँ मन में संताप
घुनो न यूँ अपने में आप
किस हेतु यह तेरा प्रलाप
सुनो अंकुर होकर इक बीज
पाता है निज यौवन
तेरे उर का मै दीप सजन
तू है दीपक मै हूँ बाती
तू मेरे संग मै संगाती
जन्मों से मै तेरी थाती
करो तुम बस इतना विश्वास
हम तुम है केवल दर्पन
तेरे उर का मै दीप सजन
विरह की चार घड़ी भर शेष
इक दूरी ये मुआ विदेस
मिटेगा उर में भरा कलेस
खोल दूंगी ये नयन मेरे
जायेगा ही ये तिमिर सघन
तेरे उर का मै दीप सजन
27 मार्च 2011
20 मार्च 2011
पिय संग होली
" प्रकृति ने होली रच डाली
कहीं पे केशर कहीं पे लाली
उमड़ घुमड़ मुस्काता है मन
पिय संग होली हुयी निराली "
11 दिस॰ 2010
मेरे घर आये है साजन
मेरे घर आये है साजन
आँगन निखर गया
बरसी थी नैनो की बदली
धो गयी सब काजल और कजली
रोग शोक दुःख पीड़ा
जाने किधर गया
हम मिलकर तुमसे हरसाए
सबको अपने सजन दिखाए
खूब खूब खुद पे इतराए
विरह वेदना का रोना
सब बिसर गया
आँगन निखर गया
बरसी थी नैनो की बदली
धो गयी सब काजल और कजली
रोग शोक दुःख पीड़ा
जाने किधर गया
हम मिलकर तुमसे हरसाए
सबको अपने सजन दिखाए
खूब खूब खुद पे इतराए
विरह वेदना का रोना
सब बिसर गया
24 सित॰ 2010
शाम ढले घर रोज सुनो तुम आजाना
बड़ा निठुर हो चला
आज का ये जमाना
शाम ढले घर रोज
सुनो तुम आजाना
कही कडकती बिजली
दिल में घर करती है
लगातार बारिश
अनजाने डर करती है
तभी पड़ोसी का आकर
कुछ खबर सुनाना
शाम ढले घर रोज
सुनो तुम आजाना
समझ रही हूँ काम बिना
जीवन न चलता
पर दिल में रहती है
जैसे कोई विकलता
सुबह चाय पीकर
कुछ खाकर जो जाते हो
न मन का कुछ सुन पाते
न कह पाते हो
सुनो गावं की सडकें
टूटी व् जर्जर है
नदी की टूटी पुलिया
पानी से तर है
एकली राह पे सूनापन
है वक्त बेगाना
शाम ढले घर रोज
सुनो तुम आजाना
आज का ये जमाना
शाम ढले घर रोज
सुनो तुम आजाना
कही कडकती बिजली
दिल में घर करती है
लगातार बारिश
अनजाने डर करती है
तभी पड़ोसी का आकर
कुछ खबर सुनाना
शाम ढले घर रोज
सुनो तुम आजाना
समझ रही हूँ काम बिना
जीवन न चलता
पर दिल में रहती है
जैसे कोई विकलता
सुबह चाय पीकर
कुछ खाकर जो जाते हो
न मन का कुछ सुन पाते
न कह पाते हो
सुनो गावं की सडकें
टूटी व् जर्जर है
नदी की टूटी पुलिया
पानी से तर है
एकली राह पे सूनापन
है वक्त बेगाना
शाम ढले घर रोज
सुनो तुम आजाना
14 अग॰ 2010
चले गये हा! जीव से प्रान
स्वागत में हम थे आतुर
अधरों पर लेकर मुस्कान
जाने कब और कैसे ईश्वर
चले गये हा! जीव से प्रान
शत शत स्वप्न सजा नैनों में
मधुरस घोला था बैनों में
लेकिन श्रम यह शून्य हो गया
धुल धूसरित सब धन धान
चले गये हा! जीव से प्रान
क्या प्रकृति के मन को भाया
सुख-सुख से कैसा भरमाया
पहले दृष्टि-दया दिखलाई
बड़ा कुटिल फिर हुआ विधान
चले गये हा! जीव से प्रान
अधरों पर लेकर मुस्कान
जाने कब और कैसे ईश्वर
चले गये हा! जीव से प्रान
शत शत स्वप्न सजा नैनों में
मधुरस घोला था बैनों में
लेकिन श्रम यह शून्य हो गया
धुल धूसरित सब धन धान
चले गये हा! जीव से प्रान
क्या प्रकृति के मन को भाया
सुख-सुख से कैसा भरमाया
पहले दृष्टि-दया दिखलाई
बड़ा कुटिल फिर हुआ विधान
चले गये हा! जीव से प्रान
8 अग॰ 2010
जिन्दगी कहाँ है तुम मुझको बता दो आजाओ ...!
जिन्दगी कहाँ है तुम मुझको बता दो आजाओ
जो किया हो मैंने कि मुझको सजा दो आजाओ
जो जमी है वो नमी है ढेर सारी आँखों में
यूँ करो कि आज घर मुझको रुला दो आजाओ
ये करूं मै कुछ लिखूं फिर फिर मिटा दूँ रोज ही
मर मिटूँ कि पहले ही पढ़ के सुना दो आजाओ
बुरे होंगे हम मगर इसकी वजह हालात है
सुनो दिलबर जोर का थप्पड़ जमा दो आजाओ
आये दरवाजे पे मेरे, बिन पुकारे चल दिए
प्यार था जो कभी तो उसको निभा दो आजाओ
जो किया हो मैंने कि मुझको सजा दो आजाओ
जो जमी है वो नमी है ढेर सारी आँखों में
यूँ करो कि आज घर मुझको रुला दो आजाओ
ये करूं मै कुछ लिखूं फिर फिर मिटा दूँ रोज ही
मर मिटूँ कि पहले ही पढ़ के सुना दो आजाओ
बुरे होंगे हम मगर इसकी वजह हालात है
सुनो दिलबर जोर का थप्पड़ जमा दो आजाओ
आये दरवाजे पे मेरे, बिन पुकारे चल दिए
प्यार था जो कभी तो उसको निभा दो आजाओ
30 जुल॰ 2010
ले ले प्राण ऐसी पीर डाल के चले गये ...!
अभी तुम्हारी याद की
अभी तुम्हारी बात की
फिर बात तुमसे करने को है मन किया
क्यों मगर यूँ मुझको टाल के चले गये
तुम सुनो कि
पल तुम्हारे बिन कठिन बन जाता है
तुम सुनो कि
विरह कितने दुःख घने जन जाता है
कि नही फिर तुम
विजोगों में अकेली मै
ले ले प्राण ऐसी पीर डाल के चले गये ...!
कि मै जानूं
घना दुःख तुमको भी होए
कि मै जानूं
किबाड़े के पछीते मुंह छुपा रोये
"चलो" मुझसे कहा इतना मगर ले न गये
अकेले ही अकेले उर उबाल के चले गये...!
अभी तुम्हारी बात की
फिर बात तुमसे करने को है मन किया
क्यों मगर यूँ मुझको टाल के चले गये
तुम सुनो कि
पल तुम्हारे बिन कठिन बन जाता है
तुम सुनो कि
विरह कितने दुःख घने जन जाता है
कि नही फिर तुम
विजोगों में अकेली मै
ले ले प्राण ऐसी पीर डाल के चले गये ...!
कि मै जानूं
घना दुःख तुमको भी होए
कि मै जानूं
किबाड़े के पछीते मुंह छुपा रोये
"चलो" मुझसे कहा इतना मगर ले न गये
अकेले ही अकेले उर उबाल के चले गये...!
29 जुल॰ 2010
विरहा औ वियोग का उर खोह है...!
दूर तुमसे बस तुम्हारी जोह है
पास तेरे हूँ तो उहा-पोह है
क्यों नही मिलता कोई निर्णय सही
क्यों हमेशा है मुझे पीड़ा वही
क्यों तो लगता है कि यह तुमको नही
जिस तरह का हाँ मुझे बिछोह है
पास हूँ तेरे तो उहा-पोह है...!
कौन है मुझको कि देता ताड़ना
क्या बताऊँ क्या कि दिल का फाड़ना
किस तरह सहूँ विरह प्रताड़ना
विरहा औ वियोग का उर खोह है
पास हूँ तेरे तो उहा-पोह है...!
पास तेरे हूँ तो उहा-पोह है
क्यों नही मिलता कोई निर्णय सही
क्यों हमेशा है मुझे पीड़ा वही
क्यों तो लगता है कि यह तुमको नही
जिस तरह का हाँ मुझे बिछोह है
पास हूँ तेरे तो उहा-पोह है...!
कौन है मुझको कि देता ताड़ना
क्या बताऊँ क्या कि दिल का फाड़ना
किस तरह सहूँ विरह प्रताड़ना
विरहा औ वियोग का उर खोह है
पास हूँ तेरे तो उहा-पोह है...!
22 जुल॰ 2010
पिया अश्रु पूर दिए रास्ते ...!
मैंने पीहर की राह धरी
पिया अश्रु पूर दिए रस्ते
हिलके-सिसके नदियाँ भरभर
फिर फिर से बांहों में कसते...!
हाये कितने सजना भोले
पल पल हंसके पल पल रो ले
चुप चुप रहके पलकें खोले
छन बैरी वियोग डसते
फिर फिर से बांहों में कसते...!
वापस आना कह हाथ जोड़
ये विनती देती है झंझोड़
मै देश पिया के लौट चली
पिया भर उर कंठ लिए हँसते
फिर फिर से बांहों में कसते...!
1 जुल॰ 2010
तू ही है हर ओर प्रियतम
विरह का यह जोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
सुबह में तेरा दरस है
जी को ये इतना हरस है
साँझ को तेरी प्रतिक्छा
तुझी से हर भोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
द्वार पर दस बार आती
तुझे न इक बार पाती
कोई देखे तो लजाती
धक् ह्रदय से लौट जाती
भिगो नैना कोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
कैसे ये तुझको बताऊँ
आई पीहर को अकेली
इक किनारे इकल बैठी
खोजती हूँ ये पहेली
आओगे ले जाने जल्दी
हो रही हूँ विभोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
12 जून 2010
जीते रहो!!!
हे! सहोदर!
तुम वही ना
जो रहे उसी उदर में
जिसमें कि मै
उसी पदार्थ से पोषित
जिससे कि मै,
फिर क्यों नहीं कोमल भावनाएं
तुम्हारी जैसे कि मेरी,
फिर क्यों कठोर शब्द
तेरे क्यों नहीं मेरे,
क्यों मैं पल पल आहत तेरे बोलों से ,
क्यों जमता मेरा दौड़ता लहू ,
क्यों ख़त्म होती मेरी खुशियाँ
तेरे उपालम्भों से,
क्यों हर वक्त मुझे नीचा दिखाने की होड़,
जबकि मै तेरी प्रतिस्पर्धी तो नहीं
तब भी चाक होता ह्रदय जब
तेरे इस व्यव्हार से माता - पिता भी
रहते तेरे ही पाले में
हे! भाई!
राखी के अवसर आते ही
आगे करते हाथ केवल इस हेतु
की कोई तुम्हे ताना न दे
की तेरी सूनी कलाई
झुकते तो नहीं कभी
जिद्दी हठीले और छोटे उम्र में तुम
फिर भी ये आशीर्वचन तेरे ही लिए
जीते रहो !!!
6 मई 2010
कौन बहार बिखेर गया...!
सूने से मन आंगन में मेरे
ये कौन रंगोली उकेर गया....
पतझर तो था अभी-अभी
फिर कौन बहार बिखेर गया...
अपना तो नही था, झौंका
शायद माथे हाथ फेर गया....
लौट आये वो लम्हा देखूं
जो पहले कुछ देर गया ....
वेदिका
ये कौन रंगोली उकेर गया....
पतझर तो था अभी-अभी
फिर कौन बहार बिखेर गया...
अपना तो नही था, झौंका
शायद माथे हाथ फेर गया....
लौट आये वो लम्हा देखूं
जो पहले कुछ देर गया ....
वेदिका
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