स्वागत में हम थे आतुर
अधरों पर लेकर मुस्कान
जाने कब और कैसे ईश्वर
चले गये हा! जीव से प्रान
शत शत स्वप्न सजा नैनों में
मधुरस घोला था बैनों में
लेकिन श्रम यह शून्य हो गया
धुल धूसरित सब धन धान
चले गये हा! जीव से प्रान
क्या प्रकृति के मन को भाया
सुख-सुख से कैसा भरमाया
पहले दृष्टि-दया दिखलाई
बड़ा कुटिल फिर हुआ विधान
चले गये हा! जीव से प्रान
आजकल आपकी रचनात्मकता जोरों पर है।
जवाब देंहटाएंyes , really a very creative post
जवाब देंहटाएंplease read this post
रेलवे स्टेशन पर अध्यात्म
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रक्षा बंधन [ कथाएं, चर्चाएँ, एक कविता भी ] समय निकालो पढ़ डालो
वेदिका जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
आपके ब्लॉग पर आ'कर तो हम बंध गए …
मुझे सहज विश्वास नहीं हो रहा कि यहां एक छंद साधिका विद्यमान है !
और छंद पर नियंत्रण भी कमजोर नहीं ।
बहुत सारी रचनाएं पढ़ीं आपकी , असमंजस में हूं … किस किस पर कमेंट न दूं !!
आप मुझे इतनी छूट दें , कम लिखे को ज़्यादा मानलें , कृपया ।
आपके लगभग सारे गीत सराहनीय हैं ।
कहीं कहीं शब्द चयन में , अथवा वर्तनीगत त्रुटि है । अन्यथा सुंदर संप्रेषणीय और भाव पूर्ण है हर रचना ।
बधाई और मंगल कामनाएं !
और हां , जीव मात्र से आपका स्नेह देखते ही बनता है । बहुत बढ़िया !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
… और हां , आपकी मुस्कुराहट बहुत सुपरिचित - सी है !
जवाब देंहटाएंमुबारक …
:)
:)
BAHUT HI SUNDER AUR MAN KO CHHOONE WALI RACHNA HAI.....
जवाब देंहटाएंसुखद लेखन
जवाब देंहटाएंLikhna ek kala hai aur aap isme nishnaat hain.Prem ki anubhuti virah jwal me tap kar hi hoti hai..
जवाब देंहटाएंBahut acche aur bandhe se saheje huye hain aapke chhand..Badhayi..likhna chhoriyega nahin
samay mile to www.nikharkhan.com pe bhi vicharan kar sakti hain..