चुप चाप समाधि सी बैठूं
जीवन क्या यही शिथिलता है
जीवन क्या यही शिथिलता है
मन सदा अशांत ही रहता है
मन मन ही मन में घुलता है
मन मन ही मन में घुलता है
खोकर अपना नन्हा सा शिशु
न प्यार तुम्हारा पाया है
कैसे तुम पत्थर दिल साथी
मन में भरी विकलता है
न प्यार तुम्हारा पाया है
कैसे तुम पत्थर दिल साथी
मन में भरी विकलता है
खाना पीना खा लूँ सो लूँ
अपना रोना किसको रो लूँ
न कोई तत्परता अब
न कोई चंचलता है
न कोई चंचलता है
चहुँ और न कोई आश्वाशन
मन समझे न कोई भाषा
कैसे मन को समझाऊं मै
मेरे अंतर व्याकुलता है
मन समझे न कोई भाषा
कैसे मन को समझाऊं मै
मेरे अंतर व्याकुलता है