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शुभ-भ्रमण

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शुभ-भ्रमण

24 सित॰ 2010

शाम ढले घर रोज सुनो तुम आजाना

बड़ा निठुर हो चला
आज का ये जमाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना

कही कडकती बिजली
दिल में घर करती है
लगातार बारिश
अनजाने डर करती है
तभी पड़ोसी का आकर
कुछ खबर सुनाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना

समझ रही हूँ काम बिना
 जीवन न चलता
पर दिल में रहती है
जैसे कोई विकलता
सुबह चाय पीकर
कुछ खाकर जो जाते हो
न मन का कुछ सुन पाते
न कह पाते हो
सुनो गावं की सडकें
टूटी व् जर्जर है
नदी की टूटी पुलिया 
पानी से तर है
एकली राह पे सूनापन
 है वक्त बेगाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना



4 टिप्‍पणियां:

  1. बड़ा निठुर हो चला
    आज का ये जमाना
    शाम ढले घर रोज
    सुनो तुम आजाना

    bahut sundar

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  2. ....किसी अपने की सलामती में व्याकुल मन की संवेदना को चरित्रार्थ करती सुन्दर रचना.....

    जवाब देंहटाएं
  3. टूटी व् जर्जर है
    नदी की टूटी पुलिया
    पानी से तर है
    एकली राह पे सूनापन
    है वक्त बेगाना
    शाम ढले घर रोज
    सुनो तुम आजाना
    बहुत सुन्दर कविता है। लगता है जो भी घर से जाता है पीछे रहने वालों को यही डर सताता है सडकें बदहाल ट्रेफिक दिनो दिन बढता जा रहा है। नई सी कविता के लिये बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  4. आपकी कविता अच्छी लगी...

    जवाब देंहटाएं

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