मेरे साथी ....जिन्होंने मेरी रचनाओं को प्रोत्साहित किया ...धन्यवाद

शुभ-भ्रमण

नमस्कार! आपका स्वागत है यहाँ इस ब्लॉग पर..... आपके आने से मेरा ब्लॉग धन्य हो गया| आप ने रचनाएँ पढ़ी तो रचनाएँ भी धन्य हो गयी| आप इन रचनाओं पर जो भी मत देंगे वो आपका अपना है, मै स्वागत करती हूँ आपके विचारों का बिना किसी छेड़-खानी के!

शुभ-भ्रमण
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3 मई 2013

डमरू घनाक्षरी / गीतिका 'वेदिका'

डमरू घनाक्षरी अर्थात बिना मात्रा वाला छंद
३२ वर्ण लघु बिना मात्रा के ८,८,८,८ पर यति प्रत्येक चरण में

लह कत दह कत, मनस पवन सम
धक् धक् धड़कन, धड कत परबस
डगमग डगमग, सजन अयन पथ,
बहकत हर पग, मन जस कस तस

बस मन तरसत, बस मन पर घर
अयन जतन तज, अचरज घर हँस
चलत चलत पथ, सरस सरस पथ,
सजन सजन पथ, हरस हरस हँस
                              गीतिका 'वेदिका'
                             १ : १ ६ अपरान्ह
                        १ / ० ५ / २ ० १ ३

30 अप्रैल 2013

ये जहाँ बदल रहा है, // गज़ल



1121 2122 1121 2122
फइलातु फाइलातुन फइलातु फाइलातुन

ये जहाँ बदल रहा है, मेरी जाँ बदल न जाये
तेरा गर करम न हो तो, मेरी साँस जल न जाये ॥


ये बता दो आज जाना, कि कहाँ तेरा निशाना
जो बदल गये हो तुम तो, कहीं बात टल न जाये ॥


न वफ़ा ये जानता है, मेरा दिल बड़ा फ़रेबी
ये मुझे है डर सनम का, कि कहीं बदल न जाये ॥


तेरी जुल्फ़ हैं घटायें, जो पलक उठे तो दिन हो
'न झुकाओ तुम निगाहें, कहीं रात ढल न जाये' ॥


मेरा दिल लगा तुझी से, तेरा दिल है तीसरे पे
तेरा इंतज़ार जब तक, मेरा दम निकल न जाये ॥

                                                                        गीतिका 'वेदिका'
                                                                      27/04/2013 8:29 अपरान्ह 
("न झुकाओ तुम निगाहें कहीं रात ढल न जाये " ....मिसरा-ए-तरह..)

24 अप्रैल 2013

भारतीय सनातन छंद

आदरणीय मित्रगण  ....सादर नमन!



दिये गये चित्र के अनुसार, को ध्यान में रख कर लिखी रचनाएँ अलग अलग विधा में रचीं गयी है, जिनके मापदण्ड भी निम्नलिखित है,कितनी सटीक चित्रण है ..ये पाठक मित्रों की आलोचना पर निर्भर है
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प्रथम प्रस्तुति  =>
कामरूप छंद
कामरूप छंद जिसमे चार चरण होते है , प्रत्येक में ९,७,१० मात्राओं पर यतिहोती है , चरणान्त गुरु-लघु से होता है

छातिया लेकर / वीर जवान / आय सीना तान
देश की माटी / की है माँग / तन व मन कुर्बान
इसी माटी से / बना है तन / इस धूरि की आन
तन से दुबला / अहा गबरू / मन धीर बलवान ..................गीतिका 'वेदिका'

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द्वतीय प्रस्तुति  =>
चतुष्पदी छंद या चौपाई 
चतुष्पदी छंद के रूप में, बुंदेलखंड के मानक कवि श्रेष्ठ ईसुरी की बुन्देली भाषा से प्रेरित है 

चौपाई छंद .....चार चरण ....प्रत्येक पद में सोलह मात्राएँ

उदाहरण ----"  जय हनुमान ज्ञान गुन सागर
                    जय कपीस तिहूँ लोक उजागर ""


१ )
अम्मा कत्ती दत के खा लो
पी लो पानी और चबा लो
सबई नाज व दालें सबरी
करो अंकुरण खालो सगरी


२ )
सुनी लेते अम्मा की बात
फिर तोइ होते अपने ठाठ
दुबरे तन ना ऐसे होते
भर्ती में काये खों रोते


३ )
ई में अगर चयन हो जाये
माता को खुश मन हो जाये
फिर ना बाबू गारी देंहें
कक्का भी हाथन में लेंहें ............... गीतिका 'वेदिका'

27 मार्च 2011

"आजाओ ना मीत एक मुस्कान लिए "

आजाओ ना मीत
एक मुस्कान लिए


दीवारों पे जाले है
आँखों के घेरे काले है
रूखे मेरे निवाले है
बैठी हूँ आँखों में
भरी थकान लिए


द्वार पड़े वे झाड़
हटा दो
आओ निकट
दूरियां घटा दो
आजाओ आशाओं
भरा जहान लिए

बंद पड़ी खिड़की खोलोगे
ताज़ी सी खुशबु घोलोगे
धीरे से तुम जब बोलोगे
आँखे रो देंगी
तेरा ही ध्यान लिए


11 दिस॰ 2010

मेरे घर आये है साजन

मेरे घर आये है साजन
आँगन निखर गया

बरसी थी नैनो की बदली
धो गयी सब काजल और कजली
रोग शोक दुःख पीड़ा
जाने किधर गया

हम मिलकर तुमसे हरसाए
सबको अपने सजन दिखाए
खूब खूब खुद पे इतराए
विरह वेदना का रोना
सब बिसर गया

24 सित॰ 2010

शाम ढले घर रोज सुनो तुम आजाना

बड़ा निठुर हो चला
आज का ये जमाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना

कही कडकती बिजली
दिल में घर करती है
लगातार बारिश
अनजाने डर करती है
तभी पड़ोसी का आकर
कुछ खबर सुनाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना

समझ रही हूँ काम बिना
 जीवन न चलता
पर दिल में रहती है
जैसे कोई विकलता
सुबह चाय पीकर
कुछ खाकर जो जाते हो
न मन का कुछ सुन पाते
न कह पाते हो
सुनो गावं की सडकें
टूटी व् जर्जर है
नदी की टूटी पुलिया 
पानी से तर है
एकली राह पे सूनापन
 है वक्त बेगाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना



14 अग॰ 2010

चले गये हा! जीव से प्रान

स्वागत में हम थे आतुर
अधरों पर लेकर मुस्कान
जाने कब और कैसे ईश्वर
चले गये हा! जीव से प्रान

शत शत स्वप्न सजा नैनों में
मधुरस घोला था बैनों में
लेकिन श्रम यह शून्य हो गया
धुल धूसरित सब धन धान
चले गये हा! जीव से प्रान
 
क्या प्रकृति के  मन को भाया
सुख-सुख से कैसा भरमाया
पहले दृष्टि-दया दिखलाई
बड़ा कुटिल फिर हुआ विधान
चले गये हा! जीव से प्रान

30 जुल॰ 2010

ले ले प्राण ऐसी पीर डाल के चले गये ...!

अभी तुम्हारी याद की
अभी तुम्हारी बात की
फिर बात तुमसे करने को है मन किया
क्यों मगर यूँ मुझको टाल के चले गये

तुम सुनो कि
पल तुम्हारे बिन कठिन बन जाता है
तुम सुनो कि
विरह कितने दुःख घने जन जाता है
कि नही फिर तुम
विजोगों में अकेली मै
ले ले प्राण ऐसी पीर डाल के चले गये ...!

कि मै जानूं
घना दुःख तुमको भी होए
कि मै जानूं
किबाड़े के पछीते मुंह छुपा रोये
"चलो" मुझसे कहा इतना मगर ले न गये
अकेले ही अकेले उर उबाल के चले गये...!

29 जुल॰ 2010

विरहा औ वियोग का उर खोह है...!

दूर तुमसे बस तुम्हारी जोह है
पास तेरे हूँ तो उहा-पोह है

क्यों नही मिलता कोई निर्णय सही
क्यों हमेशा  है मुझे पीड़ा वही
क्यों तो लगता है कि यह तुमको नही
जिस तरह का हाँ मुझे  बिछोह है
पास हूँ तेरे तो उहा-पोह है...!

कौन है मुझको कि देता ताड़ना
क्या  बताऊँ क्या कि दिल का फाड़ना
किस तरह सहूँ विरह प्रताड़ना
विरहा औ वियोग का उर खोह है 
पास हूँ तेरे तो उहा-पोह है...!

22 जुल॰ 2010

पिया अश्रु पूर दिए रास्ते ...!



मैंने पीहर की राह धरी 
पिया अश्रु पूर दिए रस्ते 
हिलके-सिसके नदियाँ भरभर
फिर फिर से बांहों में कसते...!

हाये कितने सजना भोले 
पल पल हंसके पल पल रो ले 
चुप चुप रहके पलकें खोले 
छन बैरी वियोग डसते  
फिर फिर से बांहों में कसते...!

वापस आना कह हाथ जोड़
ये विनती देती है झंझोड़ 
मै देश पिया के लौट चली 
पिया भर उर कंठ लिए हँसते
 फिर फिर से बांहों में कसते...!

12 जून 2010

जीते रहो!!!


हे! सहोदर!
तुम वही ना 
जो रहे उसी उदर में 
जिसमें कि मै  
उसी पदार्थ से पोषित
जिससे कि मै,  
फिर क्यों नहीं कोमल भावनाएं
तुम्हारी जैसे कि मेरी,
फिर क्यों कठोर शब्द 
तेरे क्यों नहीं मेरे,
क्यों मैं पल पल आहत तेरे बोलों से , 
क्यों जमता मेरा  दौड़ता लहू ,
क्यों ख़त्म होती मेरी खुशियाँ 
तेरे उपालम्भों  से, 
क्यों हर वक्त मुझे नीचा दिखाने की होड़, 
जबकि मै तेरी प्रतिस्पर्धी तो नहीं 
तब भी चाक होता ह्रदय जब 
तेरे इस व्यव्हार से माता - पिता भी 
रहते तेरे ही पाले में
 हे!  भाई! 
राखी के अवसर आते ही
आगे करते हाथ केवल इस हेतु 
की कोई तुम्हे ताना न दे 
की तेरी सूनी कलाई
झुकते तो नहीं कभी 
जिद्दी हठीले और छोटे उम्र में तुम
फिर भी ये आशीर्वचन तेरे ही लिए 
जीते रहो !!!

13 फ़र॰ 2010

हे ! भारत भू के धन्य देव ...



भाल भभूत हे! भस्मीभूत
हे! शिखर चन्द्र, हें! तपस तंद्र
हे! बाम अंग में शैल सुता
करुनानिधान, तू योगरता
हे! हरे! पितु गणेश बालक
हे! दुःख हर्ता तुम जग पालक
हे! सिद्धयोग हे! महारथी
हे! दानवीर हे! सती-पति
हे! विषपायी हे! अविनाशी
वर देते अतुल, खुद वनवासी
इतना ही वर मुझको देना
भारति माँ के दुःख हर लेना
धन-धान्य प्रगति से भर देना
फिर पूजा का अवसर देना
हे ! भारत भू के धन्य देव
ये भू समृद्ध रहे सदैव

-वेदिका
महा-शिवरात्रि २०१० (चित्र मेरे स्वयं के द्वारा लिया गया है ,)

11 फ़र॰ 2010

कोई आया सा है ...

हुयी है दस्तक   दिलो- दिमाग में
देख लूँ बाहर    कोई आया सा  है

हर पहर   ये साथ कोई चल रहा 
कौन है जैसे     मिरा साया सा है

छूटने पीछे लगे          अपने मिरे
क्यूँ किसी इक गैर को पाया सा है

कोई छू न सके         न देखे मुझे
किस तरह का ये खुदा साया सा है

काम उसको सोचने के सिवा क्या
वक्त चारों पहर     का ज़ाया सा है

-वेदिका

1 फ़र॰ 2010

"मौन "

कोलाहल  में बैठी   मौन ,
बस निःशब्द लखे तस्वीर 

बंद हथेली किसे दिखाए ,
जाने कौन लिखे तकदीर 

" क्या सच में ये मै ही हूँ " ,
खुद से पूछ , बहाती नीर 

कोई पूछता चुप हो जाती ,
नहीं   बताती  अपनी पीर 

कुछ पन्नों को गीत सुनाती ,
जाने   ये  किसकी  जागीर

नाम पता न ठौर - ठिकाना ,
किस  रांझे की  खोयी  हीर

कोलाहल    में  बैठी  मौन ,
बस निःशब्द लखे तस्वीर ...!

                         -वेदिका
१:५६ उत्तरांह २४ / ०३ / ०४

19 नव॰ 2009

अंतरतम में तुम.....!

अंतरतम में तुम ....!
ज्वाला बन के जले
लावा बन के गले

अंतरतम में तुम.....!


कुछ कहा अनकहा
हमने तुमने सहा
और जो शेष रहा

सपन धूसर धुले

अंतरतम में तुम.....!

हुयी मूक मन वानी
जो अब तक न निजानी
न हमने हार मानी
न तुमने जीत जानी

कैसे मिलते गले

अंतरतम में तुम.....!

वे मन के घन काले
बरसे बूंदों के छाले
घाव हमने ही पाले

तुम हृदय के भले

अंतरतम में तुम.....!

वेदिका...१४/११/०७ २:४५ AM