चुप चाप समाधि सी बैठूं
जीवन क्या यही शिथिलता है
जीवन क्या यही शिथिलता है
मन सदा अशांत ही रहता है
मन मन ही मन में घुलता है
मन मन ही मन में घुलता है
खोकर अपना नन्हा सा शिशु
न प्यार तुम्हारा पाया है
कैसे तुम पत्थर दिल साथी
मन में भरी विकलता है
न प्यार तुम्हारा पाया है
कैसे तुम पत्थर दिल साथी
मन में भरी विकलता है
खाना पीना खा लूँ सो लूँ
अपना रोना किसको रो लूँ
न कोई तत्परता अब
न कोई चंचलता है
न कोई चंचलता है
चहुँ और न कोई आश्वाशन
मन समझे न कोई भाषा
कैसे मन को समझाऊं मै
मेरे अंतर व्याकुलता है
मन समझे न कोई भाषा
कैसे मन को समझाऊं मै
मेरे अंतर व्याकुलता है
मानवीय संवेदनायें हैं.
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय भारतीय नागरिक जी! सम्वेदना ने आपके ह्रदय को स्पर्श किया
हटाएंकैसे मन को समझाऊं मै
जवाब देंहटाएंमेरे अंतर व्याकुलता है
उत्साह वर्धन हेतु आभार आदरणीय राकेश कौशिक जी!
हटाएंचहुँ और न कोई आश्वाशन
जवाब देंहटाएंमन समझे न कोई भाषा
कैसे मन को समझाऊं मै
मेरे अंतर व्याकुलता है,,,,
उम्दा भावअभिव्यक्ति ,,,
RECENT POST... नवगीत,
हटाएंधनयवाद सराहना हेतु आदरणीय धीरेन्द्र सिंह भदौरिया जी !
बहुत सुन्दर लिखा हे आपने
जवाब देंहटाएंदिल के जज्बात काव्य रूप में समझने के लिए तहे दिल से शुक्रिया किशन
हटाएंआदरेया आज पहली बार आपके ब्लाग का अवलोकन किया बहुत अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंभाव से सराबोर इस रचना के लिए सादर बधाई आपको ।
मुझे पहचाना वेदिका बहन?अरे वही आपकी ओ बी ओ वाली 'पड़ोसन'।
ओह जी हाँ हाँ वन्दना जी!
हटाएंबड़ी ख़ुशी हुयी आपको यहाँ पाकर ....आभार
आपकी यह अप्रतिम प्रस्तुति 'निर्झर टाइम्स' पर लिंक की गई है।कृपया http://nirjhar-times.blogspot.com पर पधारकर अवलोकन करें और आपका सुझाव/प्रतिक्रिया सादर आमंत्रित है।
जवाब देंहटाएंओह जी हाँ हाँ वन्दना जी!
हटाएंबड़ी ख़ुशी हुयी आपको यहाँ पाकर ....आभार
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय संगीता जी!
हटाएंस्नेह बनाये रखिये
मार्मिक !!!!
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