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शुभ-भ्रमण

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शुभ-भ्रमण

1 जुल॰ 2010

तू ही है हर ओर प्रियतम

विरह का यह जोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
सुबह में तेरा दरस है
जी को ये इतना हरस है
साँझ को तेरी प्रतिक्छा
तुझी से हर भोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
द्वार पर दस बार आती
तुझे न इक बार पाती
कोई देखे तो लजाती
धक् ह्रदय से लौट जाती
भिगो नैना कोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
कैसे ये तुझको बताऊँ
आई पीहर को अकेली
इक किनारे इकल बैठी
खोजती हूँ  ये पहेली
आओगे ले जाने जल्दी
हो रही हूँ विभोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी18/8/10, 10:33 am

    बहुत खूब !

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  2. अचानक हि आपके इस ब्लॉग पर आ गया और आपकी ये रचना पढी यकीन जानीये बिना तारीफ किये रहा नही गया बहुत ही अच्छी रचना है मझे बेहद पसंद आइ

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  3. Tu jo aaye paas to fir,
    man hua jaata MOR priyatam.
    Tu hi mera natkhat kanhaiya,
    Tu hi mera chitchor priyatam.

    Aapke bhavpravan geeton me bah gaya...yun hi likhte rahiye...bahate rahiye...

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  4. बेनामी1/4/11, 8:09 pm

    रमणीय काव्य...

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विचार है डोरी जैसे और ब्लॉग है रथ
टीप करिये कुछ इस तरह कि खुले सत-पथ