मेरे साथी ....जिन्होंने मेरी रचनाओं को प्रोत्साहित किया ...धन्यवाद

शुभ-भ्रमण

नमस्कार! आपका स्वागत है यहाँ इस ब्लॉग पर..... आपके आने से मेरा ब्लॉग धन्य हो गया| आप ने रचनाएँ पढ़ी तो रचनाएँ भी धन्य हो गयी| आप इन रचनाओं पर जो भी मत देंगे वो आपका अपना है, मै स्वागत करती हूँ आपके विचारों का बिना किसी छेड़-खानी के!

शुभ-भ्रमण

17 सित॰ 2012

"मेरे घर आये है साजन"


मेरे घर आये है साजन
आँगन निखर गया

बरसी थी नैनो की बदली
धो गयी सब काजल और कजली
रोग शोक दुःख पीड़ा
जाने किधर गया

हम मिलकर तुमसे हरसाए
सबको अपने सजन दिखाए
खूब खूब खुद पे इतराए
विरह वेदना का रोना
सब बिसर गया


1 जून 2012

गजल सा ये चेहरा...!

किसी फूल की पंखुरी से मुलायम
बहुत खूबसूरत गजल सा ये चेहरा

ये आँखें है या मुस्कराती दो कलियाँ
किसी झील में इक कमल सा ये चेहरा 

30 दिस॰ 2011

तेरे उर का दीप सजन


नही तिमिरमय तू
तेरे उर का मै दीप सजन

धरो न यूँ मन में संताप
घुनो न यूँ अपने में आप
किस हेतु यह तेरा प्रलाप
सुनो अंकुर होकर इक बीज
पाता है निज यौवन
तेरे उर का मै दीप सजन

तू है दीपक मै हूँ बाती
तू मेरे संग मै संगाती
जन्मों से मै तेरी थाती
करो तुम बस इतना विश्वास
हम तुम है केवल दर्पन
तेरे उर का मै दीप सजन

विरह की चार घड़ी भर शेष
इक दूरी ये मुआ विदेस
मिटेगा उर में भरा कलेस
खोल दूंगी ये नयन मेरे
जायेगा ही ये तिमिर सघन
तेरे उर का मै दीप सजन

27 मार्च 2011

"आजाओ ना मीत एक मुस्कान लिए "

आजाओ ना मीत
एक मुस्कान लिए


दीवारों पे जाले है
आँखों के घेरे काले है
रूखे मेरे निवाले है
बैठी हूँ आँखों में
भरी थकान लिए


द्वार पड़े वे झाड़
हटा दो
आओ निकट
दूरियां घटा दो
आजाओ आशाओं
भरा जहान लिए

बंद पड़ी खिड़की खोलोगे
ताज़ी सी खुशबु घोलोगे
धीरे से तुम जब बोलोगे
आँखे रो देंगी
तेरा ही ध्यान लिए


20 मार्च 2011

पिय संग होली


" प्रकृति ने होली रच डाली 


कहीं पे केशर कहीं पे लाली 


उमड़ घुमड़ मुस्काता है मन 


पिय संग होली हुयी निराली "

11 दिस॰ 2010

मेरे घर आये है साजन

मेरे घर आये है साजन
आँगन निखर गया

बरसी थी नैनो की बदली
धो गयी सब काजल और कजली
रोग शोक दुःख पीड़ा
जाने किधर गया

हम मिलकर तुमसे हरसाए
सबको अपने सजन दिखाए
खूब खूब खुद पे इतराए
विरह वेदना का रोना
सब बिसर गया

24 सित॰ 2010

शाम ढले घर रोज सुनो तुम आजाना

बड़ा निठुर हो चला
आज का ये जमाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना

कही कडकती बिजली
दिल में घर करती है
लगातार बारिश
अनजाने डर करती है
तभी पड़ोसी का आकर
कुछ खबर सुनाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना

समझ रही हूँ काम बिना
 जीवन न चलता
पर दिल में रहती है
जैसे कोई विकलता
सुबह चाय पीकर
कुछ खाकर जो जाते हो
न मन का कुछ सुन पाते
न कह पाते हो
सुनो गावं की सडकें
टूटी व् जर्जर है
नदी की टूटी पुलिया 
पानी से तर है
एकली राह पे सूनापन
 है वक्त बेगाना
शाम ढले घर रोज
 सुनो तुम आजाना



14 अग॰ 2010

चले गये हा! जीव से प्रान

स्वागत में हम थे आतुर
अधरों पर लेकर मुस्कान
जाने कब और कैसे ईश्वर
चले गये हा! जीव से प्रान

शत शत स्वप्न सजा नैनों में
मधुरस घोला था बैनों में
लेकिन श्रम यह शून्य हो गया
धुल धूसरित सब धन धान
चले गये हा! जीव से प्रान
 
क्या प्रकृति के  मन को भाया
सुख-सुख से कैसा भरमाया
पहले दृष्टि-दया दिखलाई
बड़ा कुटिल फिर हुआ विधान
चले गये हा! जीव से प्रान

8 अग॰ 2010

जिन्दगी कहाँ है तुम मुझको बता दो आजाओ ...!

जिन्दगी कहाँ है तुम मुझको बता दो आजाओ
जो किया हो मैंने कि मुझको सजा दो आजाओ

जो जमी है वो नमी है ढेर सारी आँखों में
यूँ करो कि आज घर मुझको रुला दो आजाओ

ये करूं मै कुछ लिखूं फिर फिर मिटा दूँ रोज ही
मर मिटूँ कि पहले ही पढ़ के सुना दो आजाओ

 बुरे होंगे हम मगर इसकी वजह हालात है
सुनो दिलबर जोर का थप्पड़ जमा दो आजाओ

आये दरवाजे पे मेरे, बिन पुकारे चल दिए
प्यार था जो कभी तो उसको निभा दो आजाओ 

30 जुल॰ 2010

ले ले प्राण ऐसी पीर डाल के चले गये ...!

अभी तुम्हारी याद की
अभी तुम्हारी बात की
फिर बात तुमसे करने को है मन किया
क्यों मगर यूँ मुझको टाल के चले गये

तुम सुनो कि
पल तुम्हारे बिन कठिन बन जाता है
तुम सुनो कि
विरह कितने दुःख घने जन जाता है
कि नही फिर तुम
विजोगों में अकेली मै
ले ले प्राण ऐसी पीर डाल के चले गये ...!

कि मै जानूं
घना दुःख तुमको भी होए
कि मै जानूं
किबाड़े के पछीते मुंह छुपा रोये
"चलो" मुझसे कहा इतना मगर ले न गये
अकेले ही अकेले उर उबाल के चले गये...!

29 जुल॰ 2010

विरहा औ वियोग का उर खोह है...!

दूर तुमसे बस तुम्हारी जोह है
पास तेरे हूँ तो उहा-पोह है

क्यों नही मिलता कोई निर्णय सही
क्यों हमेशा  है मुझे पीड़ा वही
क्यों तो लगता है कि यह तुमको नही
जिस तरह का हाँ मुझे  बिछोह है
पास हूँ तेरे तो उहा-पोह है...!

कौन है मुझको कि देता ताड़ना
क्या  बताऊँ क्या कि दिल का फाड़ना
किस तरह सहूँ विरह प्रताड़ना
विरहा औ वियोग का उर खोह है 
पास हूँ तेरे तो उहा-पोह है...!

22 जुल॰ 2010

पिया अश्रु पूर दिए रास्ते ...!



मैंने पीहर की राह धरी 
पिया अश्रु पूर दिए रस्ते 
हिलके-सिसके नदियाँ भरभर
फिर फिर से बांहों में कसते...!

हाये कितने सजना भोले 
पल पल हंसके पल पल रो ले 
चुप चुप रहके पलकें खोले 
छन बैरी वियोग डसते  
फिर फिर से बांहों में कसते...!

वापस आना कह हाथ जोड़
ये विनती देती है झंझोड़ 
मै देश पिया के लौट चली 
पिया भर उर कंठ लिए हँसते
 फिर फिर से बांहों में कसते...!

1 जुल॰ 2010

तू ही है हर ओर प्रियतम

विरह का यह जोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
सुबह में तेरा दरस है
जी को ये इतना हरस है
साँझ को तेरी प्रतिक्छा
तुझी से हर भोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
द्वार पर दस बार आती
तुझे न इक बार पाती
कोई देखे तो लजाती
धक् ह्रदय से लौट जाती
भिगो नैना कोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
कैसे ये तुझको बताऊँ
आई पीहर को अकेली
इक किनारे इकल बैठी
खोजती हूँ  ये पहेली
आओगे ले जाने जल्दी
हो रही हूँ विभोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम

12 जून 2010

जीते रहो!!!


हे! सहोदर!
तुम वही ना 
जो रहे उसी उदर में 
जिसमें कि मै  
उसी पदार्थ से पोषित
जिससे कि मै,  
फिर क्यों नहीं कोमल भावनाएं
तुम्हारी जैसे कि मेरी,
फिर क्यों कठोर शब्द 
तेरे क्यों नहीं मेरे,
क्यों मैं पल पल आहत तेरे बोलों से , 
क्यों जमता मेरा  दौड़ता लहू ,
क्यों ख़त्म होती मेरी खुशियाँ 
तेरे उपालम्भों  से, 
क्यों हर वक्त मुझे नीचा दिखाने की होड़, 
जबकि मै तेरी प्रतिस्पर्धी तो नहीं 
तब भी चाक होता ह्रदय जब 
तेरे इस व्यव्हार से माता - पिता भी 
रहते तेरे ही पाले में
 हे!  भाई! 
राखी के अवसर आते ही
आगे करते हाथ केवल इस हेतु 
की कोई तुम्हे ताना न दे 
की तेरी सूनी कलाई
झुकते तो नहीं कभी 
जिद्दी हठीले और छोटे उम्र में तुम
फिर भी ये आशीर्वचन तेरे ही लिए 
जीते रहो !!!

6 मई 2010

कौन बहार बिखेर गया...!

सूने से मन आंगन में मेरे
ये कौन रंगोली उकेर गया....

पतझर तो था अभी-अभी
फिर कौन बहार बिखेर गया...

अपना तो नही था, झौंका
शायद माथे हाथ फेर गया....

लौट आये वो लम्हा देखूं
जो पहले कुछ देर गया ....

वेदिका

नर्मदा मैया.....!

                                                                       नर्मदा मैया

13 फ़र॰ 2010

हे ! भारत भू के धन्य देव ...



भाल भभूत हे! भस्मीभूत
हे! शिखर चन्द्र, हें! तपस तंद्र
हे! बाम अंग में शैल सुता
करुनानिधान, तू योगरता
हे! हरे! पितु गणेश बालक
हे! दुःख हर्ता तुम जग पालक
हे! सिद्धयोग हे! महारथी
हे! दानवीर हे! सती-पति
हे! विषपायी हे! अविनाशी
वर देते अतुल, खुद वनवासी
इतना ही वर मुझको देना
भारति माँ के दुःख हर लेना
धन-धान्य प्रगति से भर देना
फिर पूजा का अवसर देना
हे ! भारत भू के धन्य देव
ये भू समृद्ध रहे सदैव

-वेदिका
महा-शिवरात्रि २०१० (चित्र मेरे स्वयं के द्वारा लिया गया है ,)

11 फ़र॰ 2010

कोई आया सा है ...

हुयी है दस्तक   दिलो- दिमाग में
देख लूँ बाहर    कोई आया सा  है

हर पहर   ये साथ कोई चल रहा 
कौन है जैसे     मिरा साया सा है

छूटने पीछे लगे          अपने मिरे
क्यूँ किसी इक गैर को पाया सा है

कोई छू न सके         न देखे मुझे
किस तरह का ये खुदा साया सा है

काम उसको सोचने के सिवा क्या
वक्त चारों पहर     का ज़ाया सा है

-वेदिका

9 फ़र॰ 2010

पल -पल -पल ये जीवन.....

पल -पल -पल ये जीवन कितना , समझौतों से भरा लगे है 
कभी लगे ये जीवन "दर्शन " कभी एक "मसखरा"  लगे    है 

 रेता - बेता - अंजर - बंजर, भूखा - प्यासा -अस्थि - पंजर
 नदियाँ-नाले -झरने-ताले, थकन अगन जो प्यास बुझा ले 
 क्षन भर की मरीचिका या फिर प्रतिबिम्बों से भरा लगे है 
कभी लगे ये जीवन  "दर्शन " कभी एक  "मसखरा" लगे है

जीवन- पर्वत हम आरोही,  जीवन -माया   हम   निर्मोही 
ज्ञान वान विज्ञानी कह लो,    या बचपन शैतानी कह लो 
साधुवाद का भास करा के,     पगलाया सिरफिरा लगे  है 
कभी लगे ये जीवन "दर्शन " कभी एक  "मसखरा" लगे है  

मिर्च-मसालों का तीखापन, या  पानी  जैसा     फीकापन
अपनी आँखें अपना अंजन,   नमी परायी  पर अपनापन
आठ साल का जख्म पुराना,     ताजा- ताजा हरा लगे है 
कभी लगे ये जीवन "दर्शन " कभी एक "मसखरा" लगे है  
                                          
                                                     -वेदिका
                                                     २० जनवरी ०३

7 फ़र॰ 2010

विदाई के अवसर पर.....

मैया के रोये से नदिया बहत है 
बाबुल के रोये बेला ताल 
भैया के रोये मेरी छतिया फटत है 
भौजी के जियरा कठोर 

बुंदेलखंड में विवाह में विदाई के अवसर पर गाया जाने वाला मार्मिक लोकगीत के बोल .....