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शुभ-भ्रमण

नमस्कार! आपका स्वागत है यहाँ इस ब्लॉग पर..... आपके आने से मेरा ब्लॉग धन्य हो गया| आप ने रचनाएँ पढ़ी तो रचनाएँ भी धन्य हो गयी| आप इन रचनाओं पर जो भी मत देंगे वो आपका अपना है, मै स्वागत करती हूँ आपके विचारों का बिना किसी छेड़-खानी के!

शुभ-भ्रमण

1 जुल॰ 2010

तू ही है हर ओर प्रियतम

विरह का यह जोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
सुबह में तेरा दरस है
जी को ये इतना हरस है
साँझ को तेरी प्रतिक्छा
तुझी से हर भोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
द्वार पर दस बार आती
तुझे न इक बार पाती
कोई देखे तो लजाती
धक् ह्रदय से लौट जाती
भिगो नैना कोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम
 
कैसे ये तुझको बताऊँ
आई पीहर को अकेली
इक किनारे इकल बैठी
खोजती हूँ  ये पहेली
आओगे ले जाने जल्दी
हो रही हूँ विभोर प्रियतम
तू ही है हर ओर प्रियतम

12 जून 2010

जीते रहो!!!


हे! सहोदर!
तुम वही ना 
जो रहे उसी उदर में 
जिसमें कि मै  
उसी पदार्थ से पोषित
जिससे कि मै,  
फिर क्यों नहीं कोमल भावनाएं
तुम्हारी जैसे कि मेरी,
फिर क्यों कठोर शब्द 
तेरे क्यों नहीं मेरे,
क्यों मैं पल पल आहत तेरे बोलों से , 
क्यों जमता मेरा  दौड़ता लहू ,
क्यों ख़त्म होती मेरी खुशियाँ 
तेरे उपालम्भों  से, 
क्यों हर वक्त मुझे नीचा दिखाने की होड़, 
जबकि मै तेरी प्रतिस्पर्धी तो नहीं 
तब भी चाक होता ह्रदय जब 
तेरे इस व्यव्हार से माता - पिता भी 
रहते तेरे ही पाले में
 हे!  भाई! 
राखी के अवसर आते ही
आगे करते हाथ केवल इस हेतु 
की कोई तुम्हे ताना न दे 
की तेरी सूनी कलाई
झुकते तो नहीं कभी 
जिद्दी हठीले और छोटे उम्र में तुम
फिर भी ये आशीर्वचन तेरे ही लिए 
जीते रहो !!!

6 मई 2010

कौन बहार बिखेर गया...!

सूने से मन आंगन में मेरे
ये कौन रंगोली उकेर गया....

पतझर तो था अभी-अभी
फिर कौन बहार बिखेर गया...

अपना तो नही था, झौंका
शायद माथे हाथ फेर गया....

लौट आये वो लम्हा देखूं
जो पहले कुछ देर गया ....

वेदिका

नर्मदा मैया.....!

                                                                       नर्मदा मैया

13 फ़र॰ 2010

हे ! भारत भू के धन्य देव ...



भाल भभूत हे! भस्मीभूत
हे! शिखर चन्द्र, हें! तपस तंद्र
हे! बाम अंग में शैल सुता
करुनानिधान, तू योगरता
हे! हरे! पितु गणेश बालक
हे! दुःख हर्ता तुम जग पालक
हे! सिद्धयोग हे! महारथी
हे! दानवीर हे! सती-पति
हे! विषपायी हे! अविनाशी
वर देते अतुल, खुद वनवासी
इतना ही वर मुझको देना
भारति माँ के दुःख हर लेना
धन-धान्य प्रगति से भर देना
फिर पूजा का अवसर देना
हे ! भारत भू के धन्य देव
ये भू समृद्ध रहे सदैव

-वेदिका
महा-शिवरात्रि २०१० (चित्र मेरे स्वयं के द्वारा लिया गया है ,)

11 फ़र॰ 2010

कोई आया सा है ...

हुयी है दस्तक   दिलो- दिमाग में
देख लूँ बाहर    कोई आया सा  है

हर पहर   ये साथ कोई चल रहा 
कौन है जैसे     मिरा साया सा है

छूटने पीछे लगे          अपने मिरे
क्यूँ किसी इक गैर को पाया सा है

कोई छू न सके         न देखे मुझे
किस तरह का ये खुदा साया सा है

काम उसको सोचने के सिवा क्या
वक्त चारों पहर     का ज़ाया सा है

-वेदिका

9 फ़र॰ 2010

पल -पल -पल ये जीवन.....

पल -पल -पल ये जीवन कितना , समझौतों से भरा लगे है 
कभी लगे ये जीवन "दर्शन " कभी एक "मसखरा"  लगे    है 

 रेता - बेता - अंजर - बंजर, भूखा - प्यासा -अस्थि - पंजर
 नदियाँ-नाले -झरने-ताले, थकन अगन जो प्यास बुझा ले 
 क्षन भर की मरीचिका या फिर प्रतिबिम्बों से भरा लगे है 
कभी लगे ये जीवन  "दर्शन " कभी एक  "मसखरा" लगे है

जीवन- पर्वत हम आरोही,  जीवन -माया   हम   निर्मोही 
ज्ञान वान विज्ञानी कह लो,    या बचपन शैतानी कह लो 
साधुवाद का भास करा के,     पगलाया सिरफिरा लगे  है 
कभी लगे ये जीवन "दर्शन " कभी एक  "मसखरा" लगे है  

मिर्च-मसालों का तीखापन, या  पानी  जैसा     फीकापन
अपनी आँखें अपना अंजन,   नमी परायी  पर अपनापन
आठ साल का जख्म पुराना,     ताजा- ताजा हरा लगे है 
कभी लगे ये जीवन "दर्शन " कभी एक "मसखरा" लगे है  
                                          
                                                     -वेदिका
                                                     २० जनवरी ०३

7 फ़र॰ 2010

विदाई के अवसर पर.....

मैया के रोये से नदिया बहत है 
बाबुल के रोये बेला ताल 
भैया के रोये मेरी छतिया फटत है 
भौजी के जियरा कठोर 

बुंदेलखंड में विवाह में विदाई के अवसर पर गाया जाने वाला मार्मिक लोकगीत के बोल .....

5 फ़र॰ 2010

शर्तें ...

नाज़ नखरे , अगर अखरे 

तुम चले जाना 

नहीं रोकेंगे तुमको हम 

मगर तुम संग ले जाना 

सभी बातें , सभी यादें 

कभी न रुख इधर करना 

वहीं जीना वहीं  मरना 

अगर फिर भी लगे न मन 

कभी जो याद आये तो 

जो मेरा गम सताये तो 

चले आना , भले आना 

मगर शर्तें पुरानी हैं 

पुराने नाज़ और नखरे  

वही तुमको जो थे अखरे

             -वेदिका
              २१ जनवरी ०३

1 फ़र॰ 2010

"मौन "

कोलाहल  में बैठी   मौन ,
बस निःशब्द लखे तस्वीर 

बंद हथेली किसे दिखाए ,
जाने कौन लिखे तकदीर 

" क्या सच में ये मै ही हूँ " ,
खुद से पूछ , बहाती नीर 

कोई पूछता चुप हो जाती ,
नहीं   बताती  अपनी पीर 

कुछ पन्नों को गीत सुनाती ,
जाने   ये  किसकी  जागीर

नाम पता न ठौर - ठिकाना ,
किस  रांझे की  खोयी  हीर

कोलाहल    में  बैठी  मौन ,
बस निःशब्द लखे तस्वीर ...!

                         -वेदिका
१:५६ उत्तरांह २४ / ०३ / ०४

29 जन॰ 2010

क्यों ना

कि आये छोड़ सब हम, साथ तुम खड़े क्यों ना 
गयेपीछे नहीं हम, तुम मगर बढ़े     क्यों ना

मै तो हूँ साथ   बगल में भी   तुमने देखा था
 कि  मेरे वास्ते   फिर   जहाँ से लड़े क्यों ना

ना बुलाया, ना कुछ कहा, ना ही रोका तुमने
"ना जाने दूंगा"    इसी बात पर अड़े क्यों ना

कि छोड़ के  तमाम जिंदगी  हम मर जाते
 कि नयी राह    मेरे साथ   चल पड़े क्यों ना

                                              -वेदिका

23 जन॰ 2010

वाह वाह कीजिये



चोट जो लगे तो बस एक  आह कीजिये 
गर पसंद हो तो    वाह   वाह कीजिये 

हम तो लिखेंगे हमारा शौक ओ पेशा यही 
आप भी पढ़ने  की मगर   चाह कीजिये 

पहचान पुरानी, है आज समझने का दिन 
हम आ सकें करीब जरा     राह कीजिये

आप भी जायेगे और हम भी रुकने के नही
एक उमर का साथ है     निबाह कीजिये

20 नव॰ 2009

स्वाभिमान...!

जाऊं जहाँ जहाँ भी
मेरा साथ जाये स्वाभिमान
क्या कहाँ किस से कहूँ क्या,
ये बताये स्वाभिमान

ये नहीं की गर्व केवल
संग दया के भाव भी हों
कुछ समझ-दारी मिली हो
ऐसे कुछ सुझाव भी हो

किन्तु बोल वही बोलूं
जिनमे छलके सत्य ज्ञान

अगर हम अधिकार चाहें
याद हों दायित्व भी
न्याय, परउपकार आदि
गुणों पर स्वामित्व भी

स्व के इस सिंगार में
ये जेवरात सब महान

किन्तु इतना याद हो
की अहं चाहे बाद हो
न गिराए न गिराने दे
किसी को अपना मान

प्रति स्व के धर्म है ये
वेदिका वर्चस्व मेरा
चिरंजीवी हो यथा
यही हो सर्वस्व मेरा

बचा रखूं बना रखूं
अपनी नियति का विधान
जाऊं जहाँ जहाँ भी
मेरा साथ जाये स्वाभिमान

वेदिका...

19 नव॰ 2009

अंतरतम में तुम.....!

अंतरतम में तुम ....!
ज्वाला बन के जले
लावा बन के गले

अंतरतम में तुम.....!


कुछ कहा अनकहा
हमने तुमने सहा
और जो शेष रहा

सपन धूसर धुले

अंतरतम में तुम.....!

हुयी मूक मन वानी
जो अब तक न निजानी
न हमने हार मानी
न तुमने जीत जानी

कैसे मिलते गले

अंतरतम में तुम.....!

वे मन के घन काले
बरसे बूंदों के छाले
घाव हमने ही पाले

तुम हृदय के भले

अंतरतम में तुम.....!

वेदिका...१४/११/०७ २:४५ AM

18 नव॰ 2009

जाने हमने हाय इसका क्या बिगाड़ा......!

बेहिसाब बारिश
तिस पर निर्दयी जाड़ा
जाने हमने हाय
इसका क्या बिगाड़ा

इस कदर बरसा ये बादल
भीग गयी रूह पूरी
निचुड़ गया रोम-रोम
उठ गयी है यूँ फरुरी

डरते कांपते ही बीता
पिछला पूरा ही पखवाड़ा

देखना एक दिन ही
पूरा हमें डूब जाना है
कुछ नहीं जायेगा संग
सब यहीं छूट जाना है

दे रहा देखो बुलावा
काले बादल का नगाड़ा

बेहिसाब बारिश
तिस पर निर्दयी जाड़ा
जाने हमने हाय
इसका क्या बिगाड़ा



वेदिका- 12:58 am 18-11-2009